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"आमंत्रण" ---- `बालसभा’ एक अभियान है जो भारतीय बच्चों के लिए नेट पर स्वस्थ सामग्री व जीवनमूल्यों की शिक्षा हिन्दी में देने के प्रति प्रतिबद्ध है.ताकि नेट पर सर्फ़िंग करती हमारी भावी पीढ़ी को अपनी संस्कृति, साहित्य व मानवीयमूल्यों की समझ भी इस संसाधन के माध्यम से प्राप्त हो व वे केवल उत्पाती खेलों व उत्तेजक सामग्री तक ही सीमित न रहें.कोई भी इस अभियान का हिस्सा बन सकता है, जो भारतीय साहित्य से सम्बन्धित सामग्री को यूनिकोड में टंकित करके ‘बालसभा’ को उपलब्ध कराए। इसमें महापुरुषों की जीवनियाँ, कथा साहित्य व हमारा क्लासिक गद्य-पद्य सम्मिलित है ( जैसे पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, हितोपदेश इत्यादि).

शुक्रवार, 16 मई 2008

मम्मी - पापा का रोल : शिवभजन कमलेश

मम्मी-पापा का रोल

--शिव भजन कमलेश

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गुड्डू ने अपने पापा का किया एक दिन रोल
ढीला सूट पहन कर बैठा उपन्यास को खोल
पावरदार चढ़ा कर चश्मा लगा उलटने पेज़
छोटी कुरसी में लगती गरदन से ऊँची मेज़
बैंगन बाँध बना कर जूड़ा होंठ बनाए लाल
छोटी मुन्नी उल्टा पल्लू ओढ़ लिया फिर शाल
खूंटीदार पहन कर सैण्डिल मम्मी बनी सरोज
खाली झोला ले कर आई बना क्रोध का पोज
लो जी जल्दी सब्जी लाऒ कितनी कर दी लेट
चूल्हा ठंडा हुआ जा रहा सिकुड़ रहा है पेट
इतनी जल्दी क्यों करती हो अभी बजे हैं आठ
ऐसे रौब जमाती जैसे खड़ी करोगी खाट
गुस्से में भर कर सरोज ने मारा जम कर छक्का
गिरा कान से चश्मा पा कर उपन्यास का धक्का
अलग हो गई ज़िल्द नज़र का चशमा गिर कर चूर
खत्म हो गया खेल साथ में होश हुआ काफूर

(प्रस्तुति सहयोग : योगेन्द्र मौदगिल)

6 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari ने कहा…

बाल सभा-बहुत सार्थक प्रयास है, शुभकामनाऐं. बच्चों के लिए कविता बहुत अच्छी लगी.बधाई आप सबको.

Dr Parveen Chopra ने कहा…

आज पहली बार आप की बालसभा में चौकड़ी लगा कर आप के प्रवचन सुनने का मज़ा आ गया.....ऐसा लगा कि सब कुछ अपने पड़ोस ही में घट रहा है .........ले...कि....न.....यह छक्के वाली बात तो भई हज़म नहीं हुई। यह आप को भी पता है कि असल ज़िंदगी में ऐसे कितने छक्के लग पाते हैं...........कल ही मेरी मां कह रही थीं कि ये जो टीवी विज्ञापनों पर औरतें मर्दों के मुंह पर तमाचे जड़ती नज़र आती हैं , यह बेहद आपत्तिजनक है....यह क्या सिखा रहे हैं।
यकीन मानिये, यह किसी MCP के कमैंट्स नहीं है, लेकिन अगर हो सके तो आगे से बाल-गोष्टी में थोड़ा इन बातों का ध्यान रख लिया जाये।

Kavita Vachaknavee ने कहा…

प्रवीण जी,
सर्वप्रथम तो बाल - सभा का नोटिस लेने व पधारने के लिए आभार, (वरना अभी तक केवल समीर जी अपनी सदाशयता के कारण टिप्पणियों से बल देते रहे हैं,सो उनके प्रति तो आभारी हूँ ही.)

आपने कविता की जो व्याख्या की है वह वास्तव में लेखक का ध्येय कतई नहीं है.यही हास्य या बालसुलभता है कविता में, कि बच्चे एक रोल -विशेष में होते हुए भी कैसे सब कुछ भूल जाते हैं क्षण-भर में और अभिनय तज कर अपनी खेल की मुद्रा में आ जाते हैं या कह लें कि भूल जाते हैं कि वे बच्चे के रूप में क्रिकेट नहीं खेल रहे बल्कि किसी अभिनयात्मक मुद्रा में हैं. यही उनका बचपना है कि चाह कर भी नाटक या अभिनय निभा नहीं पाते और सब भूल भाल कर असल खेल में आ जाते हैं. अस्तु!

आपने इस ओर ध्यान दिलाया है सो भविष्य में अधिक सतर्कता बरती जाएगी.रचनाएँ उपलब्ध करा कर भेजने वाले हमारे सहयोगी लेखक भविष्य में निरापद सामग्री ही देंगे.

आप जैसे जागरूक सज्जनों से भविष्य में भी इसी प्रकार स्पष्टोक्ति सहयोग की आशा है.

पुन: धन्यवाद.

डा. अमर कुमार ने कहा…

मेरी सोच को साझी करने वाले और जन भी हैं यहाँ !
यह देख मन में एक उत्साह उमड़ पड़ा !
साधुवाद कविता जी !

Kavita Vachaknavee ने कहा…

अमर जी,

अच्छा लगा कि आप खोज से यहाँ तक आ गए.आपके शब्दों के लिए आभारी हूँ. सद्भाव बनाए रखें. आपके सद्कार्य की सफलता के लिए भी शुभकामनाएँ.

beena ने कहा…

भागो बच्चों दीदीआई,अब सबकी होगी पिटाईदीदी ने जो दिया था काम, पूरा किया न हमने राम
दीदी चश्मा लगाती है, पूरी टीचर लगती है।
जल्दी हो दीदी की शादी, मिले हमें अपनी आजादी

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आपका एक-एक सार्थक शब्द इस अभियान व प्रयास को बल देगा. मर्यादा व संतुलन, विवेक के पर्याय हैं और उनकी सराहना के शब्द मेरे पास नहीं हैं;पुनरपि उनका सत्कार करती हूँ|आपके प्रतिक्रिया करने के प्रति आभार व्यक्त करना मेरा नैतिक दायित्व ही नहीं अपितु प्रसन्नता का कारण भी है|पुन: स्वागत कर हर्ष होगा| आपकी प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं।

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