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"आमंत्रण" ---- `बालसभा’ एक अभियान है जो भारतीय बच्चों के लिए नेट पर स्वस्थ सामग्री व जीवनमूल्यों की शिक्षा हिन्दी में देने के प्रति प्रतिबद्ध है.ताकि नेट पर सर्फ़िंग करती हमारी भावी पीढ़ी को अपनी संस्कृति, साहित्य व मानवीयमूल्यों की समझ भी इस संसाधन के माध्यम से प्राप्त हो व वे केवल उत्पाती खेलों व उत्तेजक सामग्री तक ही सीमित न रहें.कोई भी इस अभियान का हिस्सा बन सकता है, जो भारतीय साहित्य से सम्बन्धित सामग्री को यूनिकोड में टंकित करके ‘बालसभा’ को उपलब्ध कराए। इसमें महापुरुषों की जीवनियाँ, कथा साहित्य व हमारा क्लासिक गद्य-पद्य सम्मिलित है ( जैसे पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, हितोपदेश इत्यादि).

गुरुवार, 29 मई 2008

पर हम अंधे होकर करते उसका दोहन-शोषण





्रकृति
- ऋषभ देव शर्मा



प्रकृति हमारा पालन करती करती सचमुच पोषण
पर हम अंधे होकर करते उसका दोहन-शोषण।

पेड़ कट गए, चिडियाँ गायब नहीं कबूतर मिलते
अब तो सिंथेटिक पौधों पर गुलाब नकली खिलते.

चलो प्रकृति की ओर चलें अब सब नदियों को जोडें।
पेड़ लगाएं, फूल खिलायें राम सेतु ना तोडें।

शुक्रवार, 16 मई 2008

मम्मी - पापा का रोल : शिवभजन कमलेश

मम्मी-पापा का रोल

--शिव भजन कमलेश

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गुड्डू ने अपने पापा का किया एक दिन रोल
ढीला सूट पहन कर बैठा उपन्यास को खोल
पावरदार चढ़ा कर चश्मा लगा उलटने पेज़
छोटी कुरसी में लगती गरदन से ऊँची मेज़
बैंगन बाँध बना कर जूड़ा होंठ बनाए लाल
छोटी मुन्नी उल्टा पल्लू ओढ़ लिया फिर शाल
खूंटीदार पहन कर सैण्डिल मम्मी बनी सरोज
खाली झोला ले कर आई बना क्रोध का पोज
लो जी जल्दी सब्जी लाऒ कितनी कर दी लेट
चूल्हा ठंडा हुआ जा रहा सिकुड़ रहा है पेट
इतनी जल्दी क्यों करती हो अभी बजे हैं आठ
ऐसे रौब जमाती जैसे खड़ी करोगी खाट
गुस्से में भर कर सरोज ने मारा जम कर छक्का
गिरा कान से चश्मा पा कर उपन्यास का धक्का
अलग हो गई ज़िल्द नज़र का चशमा गिर कर चूर
खत्म हो गया खेल साथ में होश हुआ काफूर

(प्रस्तुति सहयोग : योगेन्द्र मौदगिल)

गुरुवार, 15 मई 2008

आमंत्रण ( आप भी इस अभियान का हिस्सा ...)

`बालसभा’ एक अभियान है जो भारतीय बच्चों के लिए नेट पर स्वस्थ सामग्री व जीवनमूल्यों की शिक्षा हिन्दी में देने के प्रति प्रतिबद्ध है.ताकि नेट पर सर्फ़िंग करती हमारी भावी पीढ़ी को अपनी संस्कृति, साहित्य व मानवीयमूल्यों की समझ भी इस संसाधन के माध्यम से प्राप्त हो व वे केवल उत्पाती खेलों व उत्तेजक सामग्री तक ही सीमित न रहें.

कोई भी इस अभियान का हिस्सा बन सकता है, जो भारतीय साहित्य से सम्बन्धित सामग्री को यूनिकोड में टंकित करके ‘बालसभा’ को उपलब्ध कराए। इसमें महापुरुषों की जीवनियाँ, कथा साहित्य व हमारा क्लासिक गद्य-पद्य सम्मिलित है ( जैसे पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, हितोपदेश इत्यादि).

यदि आप अथवा आपका कोई परिचित इस अभियान से जुड़ना चाहेंगे तो उन्हें सहयोगी के रूप में मुख्यपृष्ठ पर आदरपूर्वक दर्शाया जाएगा।

धन्यवाद.

सोमवार, 12 मई 2008

तुम धरा सपूत हो - डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी

तुम धरा सपूत हो
-डा महाश्वेता चतुर्वेदी
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तुम धरा सपूत हो
शूर न्याय दूत हो
राह यदि नहीं मिले
पथ नया बना चलो


फूल हों कि शूल हों
राह पर चले चलो
तुम बढ़ो, रुको नहीं
वेग बन चले चलो
राम की शपथ तुम्हें
कृष्ण की शपथ तुम्हें
तुम शिवा प्रताप की
आन से नहीं टलो
लक्ष्य प्रिय महान हो
साथ दिव्य गान हो
संग दीप बुद्धि हो
भूल तुम न मन छलो
स्वप्न को उतार दो
स्वर्ग को निखार दो
लौह रूप धार कर
ताप में नहीं गलो

(प्रस्तुति सहयोग : योगेन्द्र मौदगिल)

मंगलवार, 6 मई 2008

हाथी और ऊँट : पवन चंदन



पवन चंदन की बाल कविता
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हाथी, ऊंट से

हाथी बोला ऊंट से तुम क्‍या लगते हो ठूंठ से
कमर में कूबड़ कैसा है गला गली के जैसा है
दुबली पतली काया है कब से कुछ नहीं खाया है
हर कोने से सूखे हो लगता बिलकुल भूखे हो
कहां के हो क्‍या हाल है लगता पड़ा अकाल है


ऊंट, हाथी से
*
ऐ भोंदूमल गोलमटोल मोटे तू ज्‍यादा मत बोल
सबसे ज्‍यादा खाया है तू खा खाकर मस्‍ताया है
फसलें चाहे अच्‍छी हों गन्‍ना हो या मक्‍की हो
तेरे जैसे हों दो चार तो हो जायेगा बंटाढार
जैसा अपना इण्डिया गेट देख देखकर तेरा पेट
समझ गये हम सारा हाल क्‍यों पड़ता है रोज अकाल
सब कुछ तू खा जायेगा तो ऊंट कहां से खायेगा
(प्रस्तुति सहयोग : योगेन्द्र मौदगिल
)

रविवार, 4 मई 2008

किससे क्या सीखें --डॉ. विश्वनाथ शुक्ल



किससे क्या सीखें
--डॉ. विश्वनाथ शुक्ल

चिड़ियों से सीखेंगें हम सब बड़े सवेरे जगना
सूरज से सीखेंगें आलस छोड़ काम में लगना
धरती से सीखेंगें सुख दुख एक भाव से सहना
पर्वत से सीखेंगें तूफ़ानों में अविचल रहना
नदियों से सीखेंगें हरदम आगे बढ़ते जाना
आंधी से सीखेंगें बाधाऒं से लड़ते जाना
चींटी से सीखेंगें हम सब अनुशासन में चलना
पेड़ों से सीखेंगें सबके लिये फूलना फलना
मधुमक्खी से सीखेंगें हम अथक परिश्रम करना
फूलों से सीखेंगें हंसना मधुर गंध से भरना
जिसमें जो कुछ अच्छा है हम उससे वह सीखेंगें
हम भारत के लाल चमकते हुए अलग दीखेंगें
( प्रस्तुति सहयोग: योगेन्द्र मौदगिल )

गुरुवार, 1 मई 2008

खट्टे अंगूर --- डा.किशोर काबरा

खट्टे अंगूर

----डा. किशोर काबरा
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एक लोमड़ी भूखी प्यासी

चली ढूंढने खाना

दिन भर घूमी इधर उधर पर

मिला न उसको दाना

एक बाग़ में चलते चलते

निकल गई वह दूर

देखा उसने लटक रहे हैं

बडे़ बड़े अंगूर

पके पके अंगूर देख कर

मुंह में आया पानी

उछल कूद कर लगी पकड़ने

उन्हें लोमड़ी रानी

मगर बड़ी ऊंचाई पर थे

अंगूरों के गुच्छे

मीठे मीठे प्यारे प्यारे

मोती जैसे अच्छे

आखिर उनको पकड़ न पाई

हो गई थक कर चूर

जाते जाते बोली कितने

खट्टे हैं अंगूर

---प्रस्तुति; योगेन्द्र मौदगिल

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