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"आमंत्रण" ---- `बालसभा’ एक अभियान है जो भारतीय बच्चों के लिए नेट पर स्वस्थ सामग्री व जीवनमूल्यों की शिक्षा हिन्दी में देने के प्रति प्रतिबद्ध है.ताकि नेट पर सर्फ़िंग करती हमारी भावी पीढ़ी को अपनी संस्कृति, साहित्य व मानवीयमूल्यों की समझ भी इस संसाधन के माध्यम से प्राप्त हो व वे केवल उत्पाती खेलों व उत्तेजक सामग्री तक ही सीमित न रहें.कोई भी इस अभियान का हिस्सा बन सकता है, जो भारतीय साहित्य से सम्बन्धित सामग्री को यूनिकोड में टंकित करके ‘बालसभा’ को उपलब्ध कराए। इसमें महापुरुषों की जीवनियाँ, कथा साहित्य व हमारा क्लासिक गद्य-पद्य सम्मिलित है ( जैसे पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, हितोपदेश इत्यादि).

शनिवार, 4 सितंबर 2010

है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं




  नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

कवि श्री गोपालप्रसाद व्यास 


***



Netaji Subhash Chandra Bose 


है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं।
है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं ।।
अक्सर दुनियाँ के लोग समय में चक्कर खाया करते हैं।
लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, इतिहास बनाया करते हैं ।।

             
             यह उसी वीर इतिहास-पुरुष की अनुपम अमर कहानी है।
             जो रक्त कणों से लिखी गई, जिसकी जयहिन्द निशानी है।।
             प्यारा सुभाष, नेता सुभाष, भारत-भू का उजियारा था ।  
             पैदा होते ही गणिकों ने जिसका भविष्य लिख डाला था।।


यह वीर चक्रवर्ती होगा, या त्यागी होगा सन्यासी।
जिसके गौरव को याद रखेंगे, युग युग तक भारतवासी।।
सो वही वीर नौकरशाही ने,पकड़ जेल में डाला था ।
पर क्रुद्ध केहरी कभी नहीं फंदे में टिकने वाला था।।


              बाँधे जाते इंसान, कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं।
              काया ज़रूर बाँधी जाती, बाँधे न इरादे जाते हैं।।
           वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था, जो मौका पाकर निकल गया।
           वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल  गया।।


जिस तरह धूर्त दुर्योधन से, बचकर यदुनन्दन आए थे।
जिस तरह शिवाजी ने मुग़लों के, पहरेदार छकाए थे ।।
बस उसी तरह  यह तोड़ पींजरा, तोता-सा बेदाग़ गया। 
जनवरी माह सन् इकतालिस,मच गया शोर वह भाग गया।।


            वे कहाँ गए, वे कहाँ रहे, ये धूमिल अभी कहानी है।
            हमने तो उसकी नयी कथा, आज़ाद फ़ौज से जानी है।। 



शनिवार, 7 अगस्त 2010

प्रकाश सूर्य से पृथ्वी तक कितने समय में और कैसे पहुँचता है?

मौलिक विज्ञानलेखन 

गतांक से आगे 
प्रकाश सूर्य से पृथ्वी तक कितने समय में और कैसे पहुँचता है?
विश्वमोहन तिवारी (भू.पू. एयर वाईस मार्शल) 




प्रकाश का वेग अनंत नहीं है जैसा कि प्राचीन काल में समझा जाता था। यह सच है कि उसका वेग हमारे लिये अकल्पनीय रूप से अधिक है, सामान्य घटनाओं के लिये अनंत-सा ही है - शून्य में प्रकाश का वेग ३ लाख कि.मी. प्रति सै. है। और प्रकाश का एक गुण बहुत ही विचित्र है। यदि हम एक बहुत तीव्र राकैट में बैठ कर जा रहे हों जिसका वेग १ लाख कि.मी. प्रति सैकैण्ड है, और हम उसमें एक टार्च से प्रकाश सामने की ओर फ़ेंकें तब उस प्रकाश का वेग ४ लाख कि. मी. प्रति सैकैण्ड न होकर ३ लाख कि. मी. प्रति सैकैण्ड ही रहेगा। और यदि उस राकैट से हम प्रकाश पीछे की ओर फ़ेंकें, तब भी उसका वेग २ लाख कि.मी. प्रति सैकैण्ड न होकर वही ३ लाख कि. मी. प्रति सैकैण्ड होगा।




पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती‌ है और उसका परिपथ वृत्ताकार न होकर दीर्घवृत्तीय - अंडाकार – है। अर्थात पृथ्वी की सूर्य से दूरी वर्ष भर बदलती रहती है। (आप यह बतलाएँ कि पृथ्वी सूर्य के अधिक निकट गर्मी की ऋतु में होती‌ है या शीतऋतु में।) अतएव प्रकाश के सूर्य से पृथ्वी तक आने की अवधि भी वर्ष भर बदलती रहती है। ऐसी स्थिति में हम औसत दूरी का सहारा लेते हैं जो हमें उस अवधि का एक औसत या मानक मान देती‌ है ।



पृथ्वी की सूर्य से औसत दूरी 15 करोड कि.मी. है। खगोल की‌ बात तो छोडें, सौर मंडल में ही दूरियां इस दूरी की लाखों गुनी हो सकती हैं । अत:ऐसी‌ लम्बी दूरियों के लिये इस सूर्य -पृथ्वी की दूरी को एक 'खगोलीय इकाई' (एस्ट्रानामिकल यूनिट) ए.यू. मानकर उसे सम्मान दिया गया है। सूर्य के गुरुत्व बल की सीमा लगभग १२५,०००x १५ करोड़ कि. मी. है, अर्थात् १२५००० ए.यू है ।



१५ करोड़ की इस दूरी को तय करने में प्रकाश को ५०० सैकैंड ( ८ मिनिट ३३ सै.) लगते हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि सूर्य पृथ्वी से ५०० सै. दूरी पर है. अंतरिक्ष की और भी लम्बी दूरियों को दर्शाने के लिए हम 'प्रकाश वर्ष' की इकाई का उपयोग करते हैं, जो वह दूरी है जो प्रकाश ३ लाख कि.मी. प्रति सै. के वेग से एक वर्ष में तय करता है!! मोटे तौर पर, १ प्रकाश वर्ष ९ लाख करोड़ कि.मी. के बराबर होता है। सौर मंडल का निकटतम तारा प्राक्सिमा सैंटारी है जो ४.२ प्रकाश वर्ष की दूरी पर है।




यह ५०० सै. की दूरी प्रकाश की तरंग शून्य में से संचरण कर आती है. यद्यपि प्रकाश एक तरंग है, उसे किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं. वैसे प्रकाशकणों, जिऩ्हें फ़ोटान कहते हैं, का प्रवाह भी है। वह तरंग तथा कण दोनों है।



यह कैसे हो सकता है?

क्रमशः

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

आसमान में कितने तारे?










मौलिक विज्ञान लेखन 




आसमान में कितने तारे ?
विश्वमोहन तिवारी


प्राक्कथन


आज का युग विज्ञान और प्रौद्योगिकी का है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा देश विश्व में सम्मान से रहे और समृद्ध रहे तब हमें विज्ञान (इसमें प्रौद्योगिकी सम्मिलित है) में दक्षता प्राप्त करनी ही होगी। और यदि हम सचमुच में वैज्ञानिक सोच समझ पैदा करना चाहते हैं तब यह शिक्षा विकसित मातृभाषा में होना चाहिये ।

यह हमें आज के पेचीदे जीवन को समझने में भी मदद करेगी, ताकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारे नियंत्रण में रहें, न कि हमें गुलाम बनाएँ।

आकाश के तारों को देखकर हम सभी का मन अचम्भित होता है, आह्लादित होता है और प्रश्न करता है।

विज्ञान की एक परिभाषा प्राकृतिक घटनाओं पर क्या, क्यों, कैसे, कहाँ, कब प्रश्नों के उत्तर है। कभी आपने गौर किया है कि बच्चे ऐसी ही शैली में प्रश्न करते हैं। अर्थात् वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानव का जन्मसिद्ध अधिकार है। इस लेखमाला में खगोल विषय पर कुछ ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर हैं, और कुछ प्रश्न भी।


विश्व मोहन तिवारी
एयर वाइस मार्शल (से. नि.)



एक सत्य घटना :


सन १९७२ या ७३ की‌ बात है। पटना में दो दिन में दो बार भूकम्प आया था, और दूसरे भूकम्प की रात में आने की चेतावनी दी गई थी। बड़ों की बातें सुनने के बाद कोई ५ या ६ वर्ष के बालक ने अपनी माँ से कहा, "माँ जब भूकम्प आएगा, तब मुझे जगा देना।” जब माँ ने पूछा क्यों, तब उसने कहा, “ जब भूकम्प आएगा, तब बहुत सारे तारे भी टूटकर गिरेंगे। मैं उऩ्हें बटोर लूँगा।"

. . . . . . . . . . 


आसमान में कितने तारे



अकबर ने बीरबल से भी यही प्रश्न पूछा था। बीरबल ने समय माँगा और नाटक करने के बाद कोई बहुत बड़ी संख्या बतला दी। अकबर ने कहा कि वे तारे गिनवाएँगे, और उत्तरों की संख्या में अन्तर मिला तो बीरबल की खैर नहीं। बीरबल ने अपनी शैली में उत्तर दिया, “हुज़ूर, कुछ अंतर तो आ सकता है क्योंकि रोजाना अनेक तारे टूटते हैं। और हुज़ूर चाहें तो गिनती करवा सकते हैं।" अकबर बीरबल के इस उत्तर से खुश हो गए।



आज कोई भी ऐसे उत्तर से संतुष्ट नहीं होगा। क्योंकि यह वैज्ञानिक युग है। कोई भी कथन या परिकल्पना या निष्कर्ष या सिद्धान्त तब तक वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता जबतक उसे जाँचने परखने की संभावना न हो । बीरबल को मालूम था कि उनके उत्तर को जाँचा या परखा नहीं जा सकता था, और वास्तव में यही उनका संदेश था।



विश्वसनीयता के लिये उत्तर वैज्ञानिक पद्धति से निकालना आवश्यक होता है। ऐसे प्रश्नों के उत्तर निकालने के लिये अवलोकन करना आवश्यक है, और तत्पश्चात अनुमान करना पड़ता है, क्योंकि खरबों तारों की गिनती बदलते वातावरण में तो असंभव है। वैज्ञानिक पद्धति में अनुमानों का उपयोग किया जाता है। अनुमान करने का भी वैज्ञानिक आधार होना चाहिये । फ़िर अनेक वैज्ञानिक स्वतंत्र रूप से वही कार्य करते हैं और जब सभी वैज्ञानिकों के उत्तर लगभग एक से मिलते हैं तब वह अनुमान विश्वसनीय होता है, और साथ ही उस अनुमान को कभी भी चुनौती के लिये तैयार रहना होता है। हम वैज्ञानिकों से यही अपेक्षा करते हैं और इसलिये उन पर विश्वास करते हैं।



जितने तारे हमें दिखते हैं, क्या आकाश में उतने ही तारे हैं? एक तो हमारा आँखों से देखना हुआ, और दूसरा, दूरदर्शियों की सहायता से देखना। और तीसरा, गणित के नियमों से 'देखना', जैसे नैप्टियून को पहले गणितज्ञों ने 'देखा' था; ऐसे देखने को भी अनुमान कहते हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ऐसे स्थान से जहाँ अमावस्या की रात्रि में कोई शहरी उजाला न हो, निर्मल आकाश में स्वस्थ्य आँखों से हमें लगभग ३००० तारे दिखते हैं। दूरदर्शियों से दिखने वाले तारों की संख्या दूरदर्शी की शक्ति के अनुसार बढ़ती जाती है। क्या तारों की संख्या अनंत है? यदि ब्रह्माण्ड अनंत है तब भी सितारों की संख्या अनंत नहीं हो सकती, क्योंकि तब अनंत द्रव्य या ऊर्जा की आवश्यकता होगी। महान विस्फ़ोट के समय अनंत द्रव्य या ऊर्जा नहीं थी। वैसे, ब्रह्माण्ड भी अनंत नहीं हो सकता क्योंकि उसका तो प्रसार हो रहा है और उसका अभ्युदय एक निश्चित समय पहले हुआ था। हम कह सकते हैं कि उसकी त्रिज्या लगभग १३.५ प्रकाश वर्ष है।


मोटे तौर पर हमारी मंदाकिनी (गैलैक्सी) आकाश गंगा (मिल्की वे) में लगभग २०० अरब तारे हैं। अभी ताजे समाचारों के आधार पर आकाश गंगा में ४०० अरब तारे हैं। देखिये, वैज्ञानिकों के लिये भी कितना कठिन है विश्वसनीय अनुमान लगाना। किन्तु वैज्ञानिक हमेशा तैयार रहते हैं परखने के लिये और अपने विचार या निष्कर्ष बदलने के लिये । और हमारी पड़ोसन एन्ड्रोमिडा में‌ १००० अरब तारे हैं। अभी तक हब्बल जैसे संवेदनशील दूरदर्शी(टैलैस्कोप)से लगभग ५० अरब मंदाकिनियाँ देख सकते हैं। अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि आसमान में कितने तारे हैं !


क्रमशः 


रविवार, 13 जून 2010

हम बच्चे मज़दूर के











चन्दा मामा दूर के

-डॉ० अश्वघोष 




चन्दा मामा दूर के

छिप-छिप कर खाते हैं हमसे

लड्डू मोती चूर के




लम्बी-मोटी मूँछें ऍंठे

सोने की कुर्सी पर बैठे

धूल-धूसरित लगते उनको

हम बच्चे मज़दूर के

चन्दा मामा दूर के।





बातें करते लम्बी-चौड़ी

कभी न देते फूटी कौड़ी

डाँट पिलाते रहते अक्सर

हमको बिना कसूर के

चन्दा मामा दूर के। 



मोटा पेट सेठ का बाना

खा जाते हम सबका खाना

फुटपाथों पर हमें सुलाकर

तकते रहते घूर के

चन्दा मामा दूर के। 


मंगलवार, 18 मई 2010

नीलमघाटी


नीलमघाटी 


इस पर्वत के पार एक नीलमवाली घाटी है ,
परियाँ आतीं रोज जहाँ पर संध्या और सकारे !


*
आज चलो इस कोलाहल से दूर प्रकृति से मिलने
वन- फूलों के साथ खेलने और खुशी से खिलने
स्वच्छ वायु ,निर्मल जलधारा .हरे-भरे फूले वन ,
कलरव करते रंगरंग के पक्षी रूप सँवारे !


*
पशु-पक्षी ये जीव हमारी दुनिया के सहभागी ,
जो अधिकार हमें धरती पर वैसा ही उनका भी
बुद्धि मिली है सबके लिये विचार करें अपना सा
एक शर्त बस-जो भी आये मन में आदर धारे


*
परियाँ वहीं खेलने आतीं जहाँ प्यार बिखरा हो ,
जड़-चेतन के लिये मधुर सद्भाव जहाँ निखरा हो
धरती की सुन्दर रचना सम-भाव सभी को धारे
और शपथ लो यही कि इसमें माँ का रूप निहारें !




- प्रतिभा सक्सेना 










गुरुवार, 13 मई 2010

तन पुलकित मन प्रमुदित करती






Mother & child

रात्रि-दिवस के संधि-काल में अरुण ऊषा की अंगड़ाई सी
सरसिज की अलसित पलकों को किरण छुई मुस्काई सी


हरसिंगार के सुरभित सुमनों से सुवासित अंगनाई सी 
श्रांत क्लांत जीवन में भरती तव स्मृति तरुणाई सी 
तेरी छुवन हुआ करती माँ संजीवनी दवाई सी !



हठ करता जब, भर देती रूठे मन को मनुहारों से 
गले लगा कर नहला देती चुम्बन की बौछारों से 
आज नियति के डंक झेलता मैं कराहता रहता हूँ 
ओ ममतामयी कहाँ गई कातर पुकारता रहता हूँ 
लगता जैसे पास खड़ी माँ व्यथित-मना बौराई सी !



कथा कहानी में बीते पल दिन ढलते औ रातों में 
मौसम की मार न छू पाती जाड़ा गर्मी बरसातों में 
अब तो मौसम डसने लगते शिशिर शरीर कँपा जाता है 
आता निदाघ तन झुलसाता सावन भादों तरसाता है 
कोई कथा सुनाओ माँ झूमे मन-बगिया अमराई सी !



सावन के झूलों में कहता आओ माँ तुम भी बैठो 
वायुयान में अब उड़ता हूँ पास नहीं लेकिन तुम हो
ऐसी जाने कितनी सुधियाँ काल-पर्त में गडी हुई हैं 
अंतर्मन की कोर कोर में अंतर्ध्वनि सी अड़ी हुई हैं
मुखर दिव्य-वीणा के स्वर सी मंद गूँज शहनाई सी !



मंदिर चलते हुए राह में मुझे देखतीं जब थकता 
झट गोदी में उठा लिया करतीं जैसे छटाँक भर का 
जीवन के अंतिम पड़ाव पर थक कर चूर हुआ हूँ माँ
चिर-निद्रामय बोझिल पलकों से मजबूर हुआ हूँ माँ 
एक बार फिर गा दो ना माँ लोरी भूली बिसराई सी !


तन पुलकित मन प्रमुदित करती माँ की सुधियाँ पुरवाई सी !


सत्य नारायण शर्मा ‘ कमल’





शनिवार, 24 अप्रैल 2010

माँ ने मुझसे एक रोज़ कहा था

माँ ने मुझसे एक रोज़ कहा था




                 माँ ने मुझसे एक रोज़ कहा था,
                           करता चल सबसे राम-राम!
                 यश पाएगा दुनिया में तू,
                           राम  करेंगे तेरे सब  काम!!

                                          खुद केलिए सभी जीते हैं,
                                                 तू औरों के हित अब जीले!
                                                         अमृत चाहेगी यह दुनिया,
                                                                  तू दुनिया भर का विष पीले!!
                   जिस ने जग का विष पी डाला,
                            शंकर वही बना अभिराम!
                   माँ ने मुझसे एक रोज़ कहा था,
                             करता चल सबसे राम-राम!!

                                               स्वर्ग एक कल्पना ह्रदय की,
                                                     पा  सकता है अपने अन्दर!
                                                             जिस दिन जीतेगा तू खुद को,
                                                                       बन जाएगा पूर्ण  सिकंदर!!
                    मेरी गोद में है सब पगले!
                           जो तू  ढूंढें सुबहो-शाम!
                    यश पाएगा दुनिया में तू,
                               राम करेंगे तेरे  सब काम!!

                                                     ईश्वर को उसने ही पाया,
                                                             जिस ने मुझको देखा जग में! 
                                                                     माँ की उंगली पकड़ चला जो,
                                                                              कभी नहीं भटका वो मग में!!
                      चलना ही जीवन है पगले!
                              चल गंगा-जल सा अविराम!
                       यश पाएगा तू दुनिया में,
                               राम करेंगे तेरे सब काम!!
                                -------------------------


                                                  डा.योगेन्द्र नाथ शर्मा"अरुण",डी.लिट.
                                                   पूर्व प्राचार्य,
                                                    ७४/३, न्यू नेहरु नगर,रूडकी-247667
                                           ----------------------


शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

बाल भारती निबंध प्रतियोगिता पुरस्कार

प्रकाशन विभाग
सूचना और प्रसारण मंत्रालय
भारत सरकार
---
देश भर के 13 स्कूली बच्चों को बाल भारती निबंध प्रतियोगिता पुरस्कार
बच्चों के लिए पुस्तक खेल है गणित का विमोचन

नई दिल्ली, शुक्रवार, 16 अप्रैल, 2010


देश भर के 13 स्कूली बच्चों को बाल भारती निबंध प्रतियोगिता-2009 के पुरस्कार दिए गए। प्रथम पुरस्कार के लिए दिल्ली की संस्कृति रावत, दूसरे पुरस्कार के लिए वर्धा, महाराष्ट्र के ओम कन्हैया बजाज और तीसरे पुरस्कार के लिए जोधपुर, राजस्थान की निधि शुक्ला के निबंध को चुना गया। इस मौके पर अन्य 10 को सांत्वना पुरस्कार भी दिए गए। तेरह विजेता बच्चों में से दस दिल्ली से बाहर के हैं। इनमें वर्धा, जोधपुर, नरसिंहपुर (म.प्र.), बड़वानी (म.प्र.), जयपुर, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड), सिरसा (हरियाणा), कानपुर (उ.प्र.), हैदराबाद (आ.प्र.), जमशेदपुर (झारखंड) जैसे दूर शहरों के प्रतियोगी शामिल हैं। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि तमन्ना फाउंडेशन की अध्यक्ष और शिक्षाविद श्रीमती श्यामा चोना ने विजेताओं को पुरस्कार बांटे।



वर्ष 2006 से हर वर्ष राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित हो रही इस प्रतियोगिता में इस बार करीब एक हजार बच्चों ने भाग लिया। इस प्रतयोगता में टीवी कार्यक्रमों में बच्चों की भूमिका- उचित या अनुचित विषय पर देश भर के छात्रों ने अपने रचनात्मक निबंध भेजे। उनका मूल्यांकन चयन समिति ने किया।


इस मौके पर गणित जैसे विषय पर हिंदी में रोचक पुस्तकें लिखने वाले श्री आइवर यूशिएल की पुस्तक खेल है गणित का विमोचन भी किया गया। बाल मनोविज्ञान को समझते हुए बच्चों के लिए गणित को रोचक बनाने के तरीके इस पुस्तक में हैं। लेखक ने अनेक कठिन लगने वाले प्रश्नों के हल ढूंढने की तरकीबें भी पुस्तक में बताई हैं जो न केवल रोचक हैं बल्कि खेल-खेल में बच्चों के मन से गणित का डर दूर करती है।



पिछले 62 वर्षों से लगातार प्रकाशित हो रही बाल भारती सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत प्रकाशन विभाग की एक उत्कृष्ट मासिक पत्रिका है। मनोरंजक और ज्ञानवर्धक होने के साथ ही यह बच्चों और किशोरों की प्रतिभा के विकास के लिए रचनात्मक अभियान भी चलाती रही है। वार्षिक निबंध और चित्रकला प्रतयोगिताएं और दूसरी गतिविधियां इसी अभियान का हिस्सा हैं जो बच्चों को राष्ट्र निर्माण में सक्रिय भागीदारी की प्रेरणा देती हैं। इसमें पाठकों को सक्रिय रूप से शामिल करने की कोशिश लगातार जारी है। बदलते समय के साथ पत्रिका का कलेवर, प्रस्तुतीकरण बदला है। फिर भी पत्रिका की कीमत सिर्फ आठ रुपए है। संभवतः देश की सबसे पुरानी हिंदी की लोकप्रिय बाल पत्रिका बाल भारती की प्रसार संख्या डेढ़ लाख से ज्यादा है।




कार्यक्रम में अतिथियों का स्वागत प्रकाशन विभाग की अपर महानिदेशक श्रीमती वीना जैन ने किया। हर वर्ग और और भाषा-भाषी के लिए किफायती दरों पर पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने के उद्देश्य के साथ प्रकाशन विभाग हर माह 13 भारतीय भाषाओं में राष्ट्रीय विकास को दर्शाती ‘योजना’ पत्रिका छापता है। इसके अलावा विभाग हिंदी और अंग्रेजी में ग्रामीण विकास की पत्रिका ‘कुरुक्षेत्र’, तथा हिंदी, और उर्दू में साहित्यिक पत्रिका ‘आजकल’ का प्रकाशन भी करता है।

शनिवार, 20 मार्च 2010

एक कविता आज गौरैया के नाम !


घरेलू गौरैया विलुप्तप्राय है |
20 मार्च 2010 को पहली बार विश्व गौरैया दिवस World Sparrow Day मनाया जा मनाया जा रहा है |

एक कविता आज गौरैया के नाम !


गौरैया 

बेचारी गौरैया एक
बैठ गई आ कर
खम्भों के बीच पसरे
बिजली के तारों पर
सोच रही कहाँ जाऊँ, क्या करुँ
कितना और ढूँढती फिरूँ 
चिंतातुर अनमनी
सारे घर मंझा आई
घोंसला का जुगाड़
कहीं नहीं बना पाई
घर अब कहाँ रहे
धन्नी बाँस मोखले वाले
दीवारें खड़ीं सपाट
लोप हो गये कब के आले
रहती वह नहीं पेड़ पर
कभी घोंसला बना कर
झरोखों मोखलों में बसती
तिनके घास फूस जुटा कर
फालतू कतरन झाड झंखाड़
जहाँ पाती चोंच में दबाती
फुर्र से उड़ जाती
घोंसले में खोंस आती
कीड़े मकोड़े अनाज-दाने
जो कुछ पाती चबा जाती
कुछ चोंच में दबाये
चिचिहाते बच्चों के
मुँह में ठूँस आती
कभी वह गौरैया
खिड़की की चौखट
अलगनी मुंडेरों पर
आँगन में चौबारों में
कबाड़ के ढेरों पर
सदियों से चहक रही थी
नाचती कूदती झगडती
पूरे घर में बहक रही थी
बच्चे किलकारी भरते
टकटकी लगा तकते
चिरैया का सर्कस देख
रोना भी भूल जाते
वक्त ने पलटा खाया
आधुनिक इमारतों का
अनोखा जाल बिछाया
उजड़ गई गौरैया की दुनिया
फैशन ने कहर ढाया
आदमी के स्वार्थ से हार कर
पहुँच गई विलुप्ति की कगार पर
हमारी घरेलू चिरैया
बेचारी गौरैया !
सत्यनारायण शर्मा कमल

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