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"आमंत्रण" ---- `बालसभा’ एक अभियान है जो भारतीय बच्चों के लिए नेट पर स्वस्थ सामग्री व जीवनमूल्यों की शिक्षा हिन्दी में देने के प्रति प्रतिबद्ध है.ताकि नेट पर सर्फ़िंग करती हमारी भावी पीढ़ी को अपनी संस्कृति, साहित्य व मानवीयमूल्यों की समझ भी इस संसाधन के माध्यम से प्राप्त हो व वे केवल उत्पाती खेलों व उत्तेजक सामग्री तक ही सीमित न रहें.कोई भी इस अभियान का हिस्सा बन सकता है, जो भारतीय साहित्य से सम्बन्धित सामग्री को यूनिकोड में टंकित करके ‘बालसभा’ को उपलब्ध कराए। इसमें महापुरुषों की जीवनियाँ, कथा साहित्य व हमारा क्लासिक गद्य-पद्य सम्मिलित है ( जैसे पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, हितोपदेश इत्यादि).

मंगलवार, 18 मई 2010

नीलमघाटी


नीलमघाटी 


इस पर्वत के पार एक नीलमवाली घाटी है ,
परियाँ आतीं रोज जहाँ पर संध्या और सकारे !


*
आज चलो इस कोलाहल से दूर प्रकृति से मिलने
वन- फूलों के साथ खेलने और खुशी से खिलने
स्वच्छ वायु ,निर्मल जलधारा .हरे-भरे फूले वन ,
कलरव करते रंगरंग के पक्षी रूप सँवारे !


*
पशु-पक्षी ये जीव हमारी दुनिया के सहभागी ,
जो अधिकार हमें धरती पर वैसा ही उनका भी
बुद्धि मिली है सबके लिये विचार करें अपना सा
एक शर्त बस-जो भी आये मन में आदर धारे


*
परियाँ वहीं खेलने आतीं जहाँ प्यार बिखरा हो ,
जड़-चेतन के लिये मधुर सद्भाव जहाँ निखरा हो
धरती की सुन्दर रचना सम-भाव सभी को धारे
और शपथ लो यही कि इसमें माँ का रूप निहारें !




- प्रतिभा सक्सेना 










गुरुवार, 13 मई 2010

तन पुलकित मन प्रमुदित करती






Mother & child

रात्रि-दिवस के संधि-काल में अरुण ऊषा की अंगड़ाई सी
सरसिज की अलसित पलकों को किरण छुई मुस्काई सी


हरसिंगार के सुरभित सुमनों से सुवासित अंगनाई सी 
श्रांत क्लांत जीवन में भरती तव स्मृति तरुणाई सी 
तेरी छुवन हुआ करती माँ संजीवनी दवाई सी !



हठ करता जब, भर देती रूठे मन को मनुहारों से 
गले लगा कर नहला देती चुम्बन की बौछारों से 
आज नियति के डंक झेलता मैं कराहता रहता हूँ 
ओ ममतामयी कहाँ गई कातर पुकारता रहता हूँ 
लगता जैसे पास खड़ी माँ व्यथित-मना बौराई सी !



कथा कहानी में बीते पल दिन ढलते औ रातों में 
मौसम की मार न छू पाती जाड़ा गर्मी बरसातों में 
अब तो मौसम डसने लगते शिशिर शरीर कँपा जाता है 
आता निदाघ तन झुलसाता सावन भादों तरसाता है 
कोई कथा सुनाओ माँ झूमे मन-बगिया अमराई सी !



सावन के झूलों में कहता आओ माँ तुम भी बैठो 
वायुयान में अब उड़ता हूँ पास नहीं लेकिन तुम हो
ऐसी जाने कितनी सुधियाँ काल-पर्त में गडी हुई हैं 
अंतर्मन की कोर कोर में अंतर्ध्वनि सी अड़ी हुई हैं
मुखर दिव्य-वीणा के स्वर सी मंद गूँज शहनाई सी !



मंदिर चलते हुए राह में मुझे देखतीं जब थकता 
झट गोदी में उठा लिया करतीं जैसे छटाँक भर का 
जीवन के अंतिम पड़ाव पर थक कर चूर हुआ हूँ माँ
चिर-निद्रामय बोझिल पलकों से मजबूर हुआ हूँ माँ 
एक बार फिर गा दो ना माँ लोरी भूली बिसराई सी !


तन पुलकित मन प्रमुदित करती माँ की सुधियाँ पुरवाई सी !


सत्य नारायण शर्मा ‘ कमल’





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