रात्रि-दिवस के संधि-काल में अरुण ऊषा की अंगड़ाई सी
सरसिज की अलसित पलकों को किरण छुई मुस्काई सी
हरसिंगार के सुरभित सुमनों से सुवासित अंगनाई सी
श्रांत क्लांत जीवन में भरती तव स्मृति तरुणाई सी
तेरी छुवन हुआ करती माँ संजीवनी दवाई सी !
हठ करता जब, भर देती रूठे मन को मनुहारों से
गले लगा कर नहला देती चुम्बन की बौछारों से
आज नियति के डंक झेलता मैं कराहता रहता हूँ
ओ ममतामयी कहाँ गई कातर पुकारता रहता हूँ
लगता जैसे पास खड़ी माँ व्यथित-मना बौराई सी !
कथा कहानी में बीते पल दिन ढलते औ रातों में
मौसम की मार न छू पाती जाड़ा गर्मी बरसातों में
अब तो मौसम डसने लगते शिशिर शरीर कँपा जाता है
आता निदाघ तन झुलसाता सावन भादों तरसाता है
कोई कथा सुनाओ माँ झूमे मन-बगिया अमराई सी !
सावन के झूलों में कहता आओ माँ तुम भी बैठो
वायुयान में अब उड़ता हूँ पास नहीं लेकिन तुम हो
ऐसी जाने कितनी सुधियाँ काल-पर्त में गडी हुई हैं
अंतर्मन की कोर कोर में अंतर्ध्वनि सी अड़ी हुई हैं
मुखर दिव्य-वीणा के स्वर सी मंद गूँज शहनाई सी !
मंदिर चलते हुए राह में मुझे देखतीं जब थकता
झट गोदी में उठा लिया करतीं जैसे छटाँक भर का
जीवन के अंतिम पड़ाव पर थक कर चूर हुआ हूँ माँ
चिर-निद्रामय बोझिल पलकों से मजबूर हुआ हूँ माँ
एक बार फिर गा दो ना माँ लोरी भूली बिसराई सी !
तन पुलकित मन प्रमुदित करती माँ की सुधियाँ पुरवाई सी !
सत्य नारायण शर्मा ‘ कमल’