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बुधवार, 9 नवंबर 2011

बिपिन चन्द्र पाल: "एक महान राष्ट्रवादी दिव्यद्रष्टा"

जयंती (7 नवंबर) पर विशेष 









"बिपिन चंद्र पाल "
भारत में 'क्रांतिकारी विचारों के जनक' का परिचय :


बिपिन चंद्र पाल का जन्म 7 नवंबर 1858 को वर्त्तमान बांग्लादेश के हबीबगंज जिले के पोइल नामक गाँव में एक धनी हिंदू वैष्णव परिवार में हुआ था। बिपिन चंद्र पाल को भारत में 'क्रांतिकारी विचारों का जनक' और महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक के रूप में जाना जाता है। वह एक महान राष्ट्रवादी दिव्यद्रष्टा थे जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता रूपी पवित्र कार्य के लिए वीरता पूर्वक संघर्ष किया। वह एक महान देशभक्त, वक्ता, पत्रकार और वीर योद्धा थे जिसने भारत की स्वतंत्रता के लिए अंतिम समय तक संघर्ष किया।



बिपिन चंद्र पाल का प्रारंभिक जीवन :

उन्होंने कलकत्ता (वर्त्तमान कोलकाता) के प्रेसीडेंसी कालेज में प्रवेश लिया लेकिन दुर्भाग्यवश वह अपनी पढाई पूरी नहीं कर सके और तब अपना कैरियर प्रधानाचार्य के रूप में शुरू किया। बाद के वर्षों में जब बिपिन कलकत्ता पब्लिक लाइब्रेरी में पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में काम कर रहे थे, उनका कई बड़े नेताओं जैसे, शिवनाथ शास्त्री, एस.एन.बनर्जी और बी.के.गोस्वामी से मिलना हुआ। उन लोगों से प्रभावित होकर बिपिन ने शिक्षण का क्षेत्र छोड़कर राजनीति में अपना कैरियर शुरू करने का निश्चय किया। आगे जाकर वे बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और महर्षि अरविन्द के कार्यों, दर्शन, आध्यात्मिक विचारों और देशभक्ति से बहुत प्रभावित हुए। इन सभी राजनेताओं से अत्यधिक प्रभावित और प्रेरित होकर बिपिन ने अपने को स्वतंत्रता संग्राम में समर्पित करने का निश्चय किया। वह तुलनात्मक विचारधारा का अध्ययन करने के लिए 1898 में इंगलैंड भी गए। एक वर्ष की अवधि बिताकर वह भारत आये और उस समय से उन्होंने स्थानीय लोगों को स्वराज के विचार से परिचित कराना प्रारम्भ कर दिया। एक अच्छे पत्रकार और वक्ता होने के नाते वह अपने लेखों, भाषणों, और अन्य विवरणों के द्वारा हमेशा ही देशभक्ति, मानवता और सामाजिक जागरूकता के साथ पूर्ण स्वराज की आवश्यकता के विचार को प्रसारित करते रहते थे। 1904 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बम्बई सत्र, 1905 के बंगाल विभाजन, स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन और 1923 की बंगाल की संधि में पाल ने जुझारू प्रवृत्ति और अत्यधिक साहस और उत्साह के साथ भाग लिया।

लाल लजपत राय , बाल गंगाधर (लोकमान्य) तिलक और बिपिन चन्द्र पाल


 उत्साही स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बिपिन चंद्र पाल :

वह तीन प्रमुख देशभक्तों में से एक थे जिन्हें लाल-बाल-पाल की त्रयी के रूप में जाना जाता है। शेष दो लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक थे। वह स्वदेशी आंदोलन के प्रमुख शिल्पकारों में से एक थे। बंगाल के विभाजन के खिलाफ उनका संघर्ष अविस्मरणीय है। त्रयी के तीनों सदस्य का मानना था कि साहस, स्वयं-सहायता और आत्म-बलिदान के द्वारा ही स्वराज के विचार या पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता को पाया जा सकता है। गांधी जी के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उद्भव से पूर्व 1905 के बंगाल विभाजन के समय ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति के खिलाफ पहले लोकप्रिय जनांदोलन को शुरू करने का श्रेय इन्हीं तीनों को जाता है। इनलोगों ने ब्रिटिश शासकों तक अपना सन्देश पहुंचाने के लिए कठोर उपायों जैसे, ब्रिटिश उत्पादों का बहिष्कार, मैनचेस्टर के कारखानों में बने पश्चिमी कपड़ों को जलाना, ब्रिटिश लोगों के स्वामित्व वाले व्यापारों और उद्योगों में हड़ताल और तालाबंदी आदि उपायों की वकालत की। वंदे मातरम विद्रोह मामले में श्री अरविंद के खिलाफ गवाही देने से मना करने के कारण बिपिन चंद्र पाल को छह महीने की जेल की सजा भी हुई।


बिपिन चंद्र पाल की उग्र पत्रकारिता और वक्तृता :

एक प्रसिद्ध पत्रकार के रूप में प्रख्यात पाल ने अपने इस व्यवसाय का प्रयोग देशभक्ति की भावना और सामाजिक जागरूकता के प्रसारण में किया। उन्होंने राष्ट्रवाद और स्वराज के विचार को प्रसारित करने के लिए अनेक पत्रिकाएँ, साप्ताहिक और पुस्तकें भी प्रकाशित की। उनकी प्रमुख पुस्तकों में भारतीय राष्ट्रवाद (Indian Nationalism), राष्ट्रीयता और साम्राज्य (Nationality and Empire), स्वराज और वर्त्तमान स्थिति (Swaraj and the Present Situation), सामाजिक सुधार के आधार (The Basis of Social Reform), भारत की आत्मा (The Soul of India), हिंदुत्व का नूतन तात्पर्य और अध्ययन (The New Spirit and Studies in Hinduism) शामिल है। वह 'डेमोक्रेट', 'इंडिपेंडेंट' और कई अन्य पत्रिकाओं और समाचारपत्रों के संपादक थे। 'परिदर्शक' (1886-बंगाली साप्ताहिक), 'न्यू इंडिया' (1902-अंग्रेजी साप्ताहिक) और 'वंदे मातरम' (1906-बंगाली साप्ताहिक) एवं 'स्वराज' ये कतिपय ऐसी पत्रिकाएँ हैं जो उनके द्वारा प्रारम्भ की गईं। 



गांधी द्वारा वर्त्तमान सरकार को बिना सरकार द्वारा स्थापित करने की घोषणा और उनकी पुरोहिताई निरंकुशता को देखकर वह ऐसे पहले व्यक्ति थे जिसने गांधी या उनके 'गांधी पंथ' की आलोचना करने का साहस किया था। इसी कारण पाल ने 1920 में गांधी के असहयोग आंदोलन का भी विरोध किया। गांधी जी के प्रति उनकी आलोचना की शुरुआत गांधी जी के भारत आगमन से ही हो गई थी जो 1921 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्र में भी दिखी जब पाल अपने अध्यक्षीय भाषण के दौरान गांधी जी की “तार्किक की बजाय जादुई विचारों” की आलोचना करने लगे। पाल ने स्वैच्छिक रूप से 1920 में राजनीति से संन्यास ले लिया, हालांकि राष्ट्रीय समस्याओं पर अपने विचार जीवनपर्यंत अभिव्यक्त करते रहे। स्वतन्त्र भारत के स्वप्न को अपने मन में लिए वह 20 मई 1932 को स्वर्ग सिधार गए, और इस प्रकार भारत ने अपना एक महान और जुझारू स्वतंत्रता सेनानी खो दिया। जिसे तत्कालीन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक अपूरणीय क्षति के रूप में माना जाता है।





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