चन्दा मामा दूर के
-डॉ० अश्वघोष
चन्दा मामा दूर के
छिप-छिप कर खाते हैं हमसे
लड्डू मोती चूर के
लम्बी-मोटी मूँछें ऍंठे
सोने की कुर्सी पर बैठे
धूल-धूसरित लगते उनको
हम बच्चे मज़दूर के
चन्दा मामा दूर के।
बातें करते लम्बी-चौड़ी
कभी न देते फूटी कौड़ी
डाँट पिलाते रहते अक्सर
हमको बिना कसूर के
चन्दा मामा दूर के।
मोटा पेट सेठ का बाना
खा जाते हम सबका खाना
फुटपाथों पर हमें सुलाकर
तकते रहते घूर के
चन्दा मामा दूर के।
14 टिप्पणियाँ:
मार्मिक...
बहुत सुंदर कविता है।
बहुत अच्छी रचना ....
सुंदर रचना
umda prastuti....
iisanuii.blogspot.com
maarmik rachna....
wah ek gareeb mazdoor baccha to aisi hi kavita kahega na chanda mama ko dekh kar.
बहुत अच्छी रचना
दो मित्रों की तेवरियाँ याद आ रही हैं-
१.[स्वर्गीय] बृजपाल सिंह शौरमी-
''एक कटोरी दूध में डूबे हुए पहाड़ को
आदमी ने चाँद कहकर झूठ की शुरूआत की.''
२.जगदीश बेताब-
''मसनद पे जो लेटी है ज़रदार की बेटी है
मजदूर के बेटों के पत्थर के निवाले हैं.
मैं हाथ पसारे हूँ तुम देख के बतला दो
किस्मत की लकीरें हैं या भूख के जाले हैं.''
हमारे यहाँ ये लोरी कुछ ऐसे है
चंदा मामा दूर के
पुआ पकाए दूध के
अपने खाए थाली में
मुन्ना को दे प्याली में ...
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पर जिस संदाभ में ये लिखी गयी है उस सन्दर्भ में सही है.
stop Child Labour
बढ़िया लगी ये कविता...बधाई.
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बहुत सुन्दर है लोरी
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New post : Fathers day card and cow boy
very good poem.i like it. thanks
kavita aunti, good poem i like it
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