हितोपदेश : विग्रह : रँगे गीदड़ की मृत्यु- कथा
यः स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रमः।
श्वा यदि क्रियते राजा स किं नाश्रातयुपानहम् ?
एक समय वन में कोई गीदड़ अपनी इच्छा से नगर के पास घूमते घूमते नील के हौद में गिर गया। बाद में उसमें से निकल नहीं सका, प्रातःकाल अपने को मरे समान दिखाता बैठ गया। फिर नील के हौद के स्वामी ने उसे मरा हुआ जान कर और उसमें से निकाल कर दूर ले जाकर फेंक दिया और वहाँ से वह भाग गया। तब उसने वन में जा कर और अपनी देह को नीले रंग की देख कर विचार किया -- मैं अब उत्तम वर्ण हो गया हूँ, तो मैं अपनी प्रभुता क्यों न कर्रूँ ? यह सोच कर सियारों को बुलाकर उसने कहा -- श्रीभगवती वनकी देवीजी ने अपने हाथ से वन के राज्य पर सब औषधियों के रस से मेरा राजतिलक किया है, इसलिये आज से मेरी आज्ञा से काम करना चाहिये। अन्य सियार भी उसको अच्छा वर्ण देख कर साष्टांग दंडवत प्रणाम करके बोले -- महाराज की जो आज्ञा।
इसी प्रकार क्रम क्रम से सब वनवासियों में उसका राज्य फैल गया। फिर उसने अपनी जात से चारों ओर बैठा कर अपना अधिकार फैलाया, बाद में उसने व्याघ्र सिंह आदि उत्तम मंत्रियों को पा कर सभा में सियारों को देख कर लाज के मारे अनादर से सब अपने जात भाइयों को दूर कर दिया। फिर सियारों को विकल देख कर किसी बूढ़े सियार ने यह प्रतिज्ञा की कि तुम खेद मत करो। जैसे इस मूर्ख ने नीति तथा भेद के जानने वाले हम सभी का अपने पास से अनादर किया है, वैसे ही जिस प्रकार यह नष्ट हो सो करना चाहिये। क्योंकि ये बाघ आदि, केवल रंग से धोखे में आ गये हैं और सियार न जान कर इसको राजा मान रहे हैं। जिससे इसका भेद खुल जाए सो करो। और ऐसा करना चाहिये कि संध्या के समय उसके पास सभी एक साथ चिल्लओ। फिर उस शब्द को सुन कर अपने जाति के स्वभाव से वह भी चिल्ला उठेगा। फिर वैसा करने पर वही हुआ अर्थात उसकी पोल खुल गई।
इसीलिए कहते हैं -
यः स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रमः।
श्वा यदि क्रियते राजा स किं नाश्रातयुपानहम् ?
अर्थात् जिसका जैसा स्वभाव है, वह छूटना सर्वदा कठिन है, जैसे यदि कुत्ते को राजा कर दिया जाए, तो क्या वह जूते को नहीं चबाएगा ?
1 टिप्पणियाँ:
सुंदर सामयिक कथा
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