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"आमंत्रण" ---- `बालसभा’ एक अभियान है जो भारतीय बच्चों के लिए नेट पर स्वस्थ सामग्री व जीवनमूल्यों की शिक्षा हिन्दी में देने के प्रति प्रतिबद्ध है.ताकि नेट पर सर्फ़िंग करती हमारी भावी पीढ़ी को अपनी संस्कृति, साहित्य व मानवीयमूल्यों की समझ भी इस संसाधन के माध्यम से प्राप्त हो व वे केवल उत्पाती खेलों व उत्तेजक सामग्री तक ही सीमित न रहें.कोई भी इस अभियान का हिस्सा बन सकता है, जो भारतीय साहित्य से सम्बन्धित सामग्री को यूनिकोड में टंकित करके ‘बालसभा’ को उपलब्ध कराए। इसमें महापुरुषों की जीवनियाँ, कथा साहित्य व हमारा क्लासिक गद्य-पद्य सम्मिलित है ( जैसे पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, हितोपदेश इत्यादि).

बुधवार, 30 जुलाई 2008

पूस की रात : मुन्शी प्रेमचन्द (३१ जुलाई पर विशेष)


पूस की रात
(मुन्शी प्रेमचन्द)








हल्कू ने आकर स्त्री से कहा- सहना आया है। लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे।



मुन्नी झाडू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली- 'तीन ही रुपए हैं, दे दोगे तो कम्मल कहाँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे। अभी नहीं।



हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खडा रहा। पूस सिर पर आ गया, कम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह सो नहीं सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुडकियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाडों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी।



यह सोचता हुआ वह अपनी भारी-भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिध्द करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला- 'ला दे दे, गला तो छूटे। कम्मल के लिए कोई दूसरा उपया सोचूँगा।



मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और ऑंखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ तो कौन सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्मल? न जाने कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती ँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आए। मैं रुपए न दूँगी- न दूँगी।



हल्कू उदास होकर बोला- तो क्या गाली खाऊँ ?



मुन्नी ने तडपकर कहा-गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?



मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड गईं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जन्तु की भाँति उसे घूर रहा था।



उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली- 'तुम छोड दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस।



हल्कू ने रुपए लिए और इस तरह बाहर चला, मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-काटकर तीन रुपए कम्बल के लिए जमा किए थे। वह आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था।

पूस की ऍंधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बाँस के खरोले पर अपनी पुरानी गाढे की चादर ओढे पडा काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी।



हल्कू ने घुटनियों को गरदन में चिपकाते हुए कहा- क्यों जबरा, जाडा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहाँ क्या लेने आए थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूँ? जानते थे, मैं यहाँ हलुआ-पुरी खाने आ रहा ँ, दौडे-दौडे आगे-आगे चले आए। अब रोओ नानी के नाम को।



जबरा ने पडे-पडे दुम हिलाई और अपनी कूँ-कूँ को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया। उसकी श्वान बुध्दि ने शायद ताड लिया, स्वामी को मेरी कूँ-कूँ से नींद नहीं आ रही है।



हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठण्डी पीठ सहलाते हुए कहा- कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठण्डे हो जाओगे। यह राँड पछुआ न जाने कहाँ से बर्फ लिए आ रही है। उठूँ फिर एक चिलम भरूँ। किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम तो पी चुका। यह खेती का मजा है! और एक भागवान ऐसे पडे हैं जिनके पास जाडा आए तो गर्मी से घबडाकर भागो। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ, कम्बल। मजाल है, जाडे का गुजर हो जाए। तकदीर की खूबी! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें!



हल्कू उठा, गङ्ढे में से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी। जबरा भी उठ बैठा।



हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा- पिएगा चिलम, जाडा तो क्या जाता है, हाँ जरा मन बदल जाता है।



जबरा ने उसके मुँह की ओर प्रेम से छलकती हुई ऑंखों से देखा।



हल्कू- आज और जाडा खा ले। कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा। उसी में घुसकर बैठना, तब जाडा न लगेगा।



जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिए और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया। हल्कू को उसकी गर्म साँस लगी।



चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊँगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा। कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाडा किसी पिशाच की भाँति उसकी छाती को दबाए हुए था।



जब किसी तरह न रहा गया, उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसके सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया। कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गन्ध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद से चिपटाए हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था। जबरा शायद समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गन्ध तक न थी। अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता। वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुँचा दिया। नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था।



सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। इस विशेष आत्मीयता ने उसमें एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठण्डे झोंकों को तुच्छ समझती थी। वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भौंकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया। हार में चारों तरफ दौड-दौडकर भूँकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरन्त ही फिर दौडता।र् कत्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति उछल रहा था।पूस की ऍंधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बाँस के खरोले पर अपनी पुरानी गाढे की चादर ओढे पडा काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी।



हल्कू ने घुटनियों को गरदन में चिपकाते हुए कहा- क्यों जबरा, जाडा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहाँ क्या लेने आए थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूँ? जानते थे, मैं यहाँ हलुआ-पुरी खाने आ रहा ँ, दौडे-दौडे आगे-आगे चले आए। अब रोओ नानी के नाम को।



जबरा ने पडे-पडे दुम हिलाई और अपनी कूँ-कूँ को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया। उसकी श्वान बुध्दि ने शायद ताड लिया, स्वामी को मेरी कूँ-कूँ से नींद नहीं आ रही है।



हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठण्डी पीठ सहलाते हुए कहा- कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठण्डे हो जाओगे। यह राँड पछुआ न जाने कहाँ से बर्फ लिए आ रही है। उठूँ फिर एक चिलम भरूँ। किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम तो पी चुका। यह खेती का मजा है! और एक भागवान ऐसे पडे हैं जिनके पास जाडा आए तो गर्मी से घबडाकर भागो। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ, कम्बल। मजाल है, जाडे का गुजर हो जाए। तकदीर की खूबी! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें!



हल्कू उठा, गङ्ढे में से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी। जबरा भी उठ बैठा।



हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा- पिएगा चिलम, जाडा तो क्या जाता है, हाँ जरा मन बदल जाता है।



जबरा ने उसके मुँह की ओर प्रेम से छलकती हुई ऑंखों से देखा।



हल्कू- आज और जाडा खा ले। कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा। उसी में घुसकर बैठना, तब जाडा न लगेगा।



जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिए और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया। हल्कू को उसकी गर्म साँस लगी।



चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊँगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा। कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाडा किसी पिशाच की भाँति उसकी छाती को दबाए हुए था।



जब किसी तरह न रहा गया, उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसके सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया। कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गन्ध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद से चिपटाए हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था। जबरा शायद समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गन्ध तक न थी। अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता। वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुँचा दिया। नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था।



सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। इस विशेष आत्मीयता ने उसमें एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठण्डे झोंकों को तुच्छ समझती थी। वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भौंकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया। हार में चारों तरफ दौड-दौडकर भूँकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरन्त ही फिर दौडता।र् कत्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति उछल रहा था।

एक घण्टा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरू किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठण्ड कम न हुई। ऐसा जान पडता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों में रक्त की जगह हिम बह रही है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढे। ऊपर आ जाएँगे तब कहीं सबेरा होगा। अभी पहर से ऊपर रात है।



हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था। पतझड शुरू हो गई थी। बाग में पत्तियों का ढेर लगा हुआ था। हल्कू ने सोचा, चलकर पत्तियाँ बटोरूँ और उन्हें जलाकर खूब तापूँ। रात को कोई मुझे पत्तियाँ बटोरते देखे तो समझे, कोई भूत है। कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता।



उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड लिए और उनका एक झाडू बनाकर हाथ में सुलगाता हुआ उपला लिए बगीचे की तरफ चला। जबरा ने उसे आते देखा, पास आया और दुम हिलाने लगा।



हल्कू ने कहा- अब तो नहीं रहा जाता जबरू! चलो बगीचे में पत्तियाँ बटोरकर तापें। टाँटे हो जाएँगे, फिर आकर सोएँगे। अभी तो बहुत रात है।



जबरा ने कूँ-कूँ करके सहमति प्रकट की और आगे बगीचे की ओर चला।



बगीचे में खूब ऍंधेरा छाया हुआ था और अन्धकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था। वृक्षों से ओस की बूँदें टपटप नीचे टपक रही थीं।



एकाएक एक झोंका मेहँदी के फूलों की खुशबू लिए हुए आया।



हल्कू ने कहा- कैसी अच्छी महक आई जबरू! तुम्हारी नाक में भी कुछ सुगन्ध आ रही है?



जबरा को कहीं, जमीन पर एक हड्डी पडी मिल गई थी। उसे चिंचोड रहा था।



हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा। जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया। हाथ ठिठुरे जाते थे। नंगे पाँव गले जाते थे और वह पत्तियों का पहाड खडा कर रहा था। इसी अलाव में वह ठण्ड को जलाकर भस्म कर देगा।



थोडी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी। उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अन्धकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों। अन्धकार के उस अनन्त सागर में यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पडता था।



हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उतारकर बगल में दबा ली, दोनों पाँव फैला दिए, मानो ठण्ड को ललकार रहा हो, 'तेरे जी में आए सो कर। ठण्ड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था।



उसने जबरा से कहा- क्यों जब्बर, अब ठण्ड नहीं लग रही है?



जब्बर ने कूँ-कूँ करके मानो कहा- अब क्या ठण्ड लगती ही रहेगी?



पहले से उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यो खाते।



जब्बर ने पूँछ हिलाई।



अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें। देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बचा तो मैं दवा न करूँगा।



जब्बर ने उस अग्नि- राशि की ओर कातर नेत्रों से देखा!



मुन्नी से कल न कह देना, नहीं लडाई करेगी।



यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया। पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी।



जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खडा हुआ।



हल्कू ने कहा- चलो-चलो, इसकी सही नहीं! ऊपर से कूदकर आओ। वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया!



पत्तियाँ जल चुकी थीं। बगीचे में फिर ऍंधेरा छाया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर ऑंखें बन्द कर लेती थी।



हल्कू ने फिर चादर ओढ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके बदन में गर्मी आ गई थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था।



जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा। हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुण्ड उसके खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुण्ड था। उनके कूदने-दौडने की आवाजें साफ कान में आ रही थीं। फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रही हैं। उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी।



उसने दिल में कहा- नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहाँ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ!



उसने जोर से आवाज लगाई- जबरा भूँकता रहा। उसके पास न आया। फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दमदाया हुआ बैठा था। इस जाडे-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौडना असहाय जान पडा। वह अपनी जगह से न हिला।



उसने जोर से आवाज-लगाई- हिलो!हिलो!हिलो!!!



जबरा फिर से भूँक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार है। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते हैं!



हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठण्डा, चुभने वाला, बिच्छु के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठण्डी देह को गर्माने लगा।



जबरा अपना गला फाडे डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शान्त बैठा हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ से जकड रखा था।



उसी राख के पास गर्म जमीन पर वह चादर ओढकर सो गया।



सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैल गई थी और मुन्नी कह रही थी- क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहाँ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया।



हल्कू ने उठकर कहा- क्या तू खेत से होकर आ रही है?



मुन्नी बोली- हाँऐ सारे खेत का सत्यानाश हो गया। भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मँडैया डालने से क्या हुआ?



हल्कू ने बहाना किया- मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पडी है। पेट में ऐसा दर्द हुआ, ऐसा दर्द कि मैं ही जानता ँ!



दोनों फिर खेत के डाँड पर आए। देखा, सारा खेत रौंदा पडा हुआ है और जबरा मँडैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों।



दोनों खेत की दशा देख रहे थे। मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था।



मुन्नी ने चिन्तित होकर कहा- अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पडेगी।



हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा- रात को ठण्ड में यहाँ सोना तो न पडेगा।


6 टिप्पणियाँ:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सचाई और यथार्थ को प्रकट करने वाली और कर्मठ किसानों और श्रमिकों में अकर्मण्यता के बीज बोने वाली व्यवस्था का नंगा सत्य सहजता और सरलता से प्रदर्शित करने वाली महान कथा है, यह। इस अकेली कहानी ने अनेक कथाकारों को प्रेरित किया है।

बालकिशन ने कहा…

कई बार शायद पचासों बार पढ़ा है इस कहानी को.
यादें ताज़ा हो आई

शोभा ने कहा…

यह प्रेमचन्द जी की अमर कथा है। बहुत ही मर्म स्पर्शी। इसको यहाँ प्रस्तुत करने के लिए आभार।

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

प्रेम चंद के कालजयी होने का एक कारण
शायद यह भी है कि
उनकी कहानियां बच्चों और बड़ों ...दोनों....को
समान रूप से आकर्षित करती हैं.
पूस की रात भी ऐसी ही कहानी है.

इसे यहाँ प्रस्तुत करना सूझ का काम है!

Kavita Vachaknavee ने कहा…

द्विवेदी जी, बालकिशन जी, शोभा जी व ऋषभ जी!,
`पूस की रात' की सराहना के लिए मैं भला क्या आभार व्यक्त करुँ? क्योंकि प्रेमचंद तो हम सभी के लिए प्रणम्य हैं.वे जितने मेरे-आप के हैं उतने ही हम सब के. हाँ, आपने ब्लॉग पर आ कर इसे पठनीय पाया तदर्थ आभारी व कृतज्ञ हूँ. सद्भाव बनाए रखें.

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